यातना (अंग्रेज़ी: Torture) किसी व्यक्ति को जानबूझकर शारीरिक या मानसिक पीड़ा पहुँचाने की विधि है,[1] जिसका उद्देश्य जानकारी प्राप्त करना, दंड देना, डर पैदा करना या किसी व्यक्ति को प्रभावित करना हो सकता है। यह मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन माना जाता है और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुसार इसे निषिद्ध किया गया है।
यातना उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसमें पीड़ित व्यक्ति से सहमति के बिना जानबूझकर शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुँचाया जाता है। इसका उद्देश्य अक्सर अपराध या खुफिया जानकारी का पता लगाना, विरोधी को दंडित करना, समाज में भय फैलाना या राजनीतिक दबाव बनाना होता है।[2][3][4] यातना का प्रयोग समय और स्थान के अनुसार अलग-अलग कारणों से हुआ है, लेकिन यह कानूनी और नैतिक रूप से हमेशा अवैध है ।
शारीरिक यातना - जिसमें पीड़ित के शरीर पर चोट पहुँचाना, जलाना, बिजली का झटका देना, बाध्यकारी पोज़ देना, भूख और प्यास की मार सहने के लिए मजबूर करना आदि शामिल हैं।
मानसिक या मानसिक यातना - जिसमें डर, धमकी, नींद की कमी, मानसिक दबाव, सामाजिक अलगाव या अपमानजनक व्यवहार के माध्यम से पीड़ा पहुँचाना शामिल है। यह व्यक्ति को मानसिक रूप से टूटने पर मजबूर करती है।
यातना का प्रयोग प्राचीन काल से हुआ है। मध्ययुगीन यूरोप में दंड और सजा के रूप में इसका व्यापक उपयोग था। कई सभ्यताओं में इसे कानूनी या धार्मिक कारणों से अपनाया गया। आधुनिक युग में भी राजनीतिक प्रतिरोधियों, युद्ध कैदियों और आतंकवाद के संदिग्धों के खिलाफ इसका प्रयोग देखा गया है। इतिहास में यातना के कई प्रकार विकसित हुए, लेकिन मानवाधिकार आंदोलनों और अंतरराष्ट्रीय कानूनों ने इसे अस्वीकार किया।
यातना के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र ने "यातना और अन्य अमानवीय, क्रूर या अपमानजनक व्यवहार के खिलाफ संधि" (United Nations Convention Against Torture – UNCAT) अपनाई। इसके अनुसार किसी भी परिस्थिति में यातना करना अपराध है।[5][1][6] सदस्य देशों को यह सुनिश्चित करना होता है कि उनके क्षेत्र में यातना न हो और दोषियों को दंडित किया जाए।
भारत में, भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा ३३० और ३३१ पुलिस और सरकारी अधिकारियों द्वारा जानबूझकर चोट पहुँचाने पर प्रतिबंध लगाती है। इसके अलावा, १९८७ में "यातना विरोधी कानून" लागू हुआ। न्यायिक निर्णयों में बार-बार यह स्पष्ट किया गया है कि किसी भी परिस्थिति में किसी व्यक्ति को यातना देना अवैध है।
यातना के शारीरिक प्रभावों में स्थायी चोट, अंग क्षति, जलन, हड्डी टूटना और अन्य गंभीर स्वास्थ्य समस्याएँ शामिल हैं। मानसिक प्रभावों में डिप्रेशन, PTSD (पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर), डर, सामाजिक अलगाव और आत्मसम्मान में कमी शामिल हैं। पीड़ित व्यक्ति का सामाजिक और आर्थिक जीवन भी गंभीर रूप से प्रभावित होता है।
भारत में कई ऐतिहासिक और समकालीन मामले सामने आए हैं। पुलिस हिरासत में लोगों को शारीरिक और मानसिक पीड़ा पहुँचाने की घटनाएँ कभी-कभी उजागर होती रही हैं। मानवाधिकार आयोग और न्यायालय इन मामलों की जांच करते हैं। हालाँकि, कानून और जागरूकता के कारण अब इन घटनाओं पर कार्रवाई होती है, लेकिन पूरी तरह रोकना चुनौतीपूर्ण है।
अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर कई संगठन यातना के खिलाफ काम कर रहे हैं। ऐमनेस्टी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वॉच, और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय प्रमुख हैं। ये संगठन जागरूकता फैलाने, पीड़ितों को पुनर्वास देने और कानूनी उपाय सुनिश्चित करने का काम करते हैं।[7][8]
यातना किसी भी रूप में मानवाधिकारों का उल्लंघन है। इसे रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून, कानूनी दंड, समाज में जागरूकता और पीड़ितों के लिए पुनर्वास आवश्यक हैं। प्रत्येक देश को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यातना के मामले सामने आने पर तुरंत उन्हें रोका जाए और दोषियों को न्याय दिलाया जाए। यह मानवता और न्याय का प्रतीक है।