इस्लाम एगो प्रमुख धर्म छेकै.साँचा:इस्लामइस्लाम (साँचा:Lang-ar ; अल-इस्लाम) एगोइब्राहीमी पन्थ छेकै, जे प्रेषित परम्परा सँ निकलीएकेश्वरवादपन्थ छेकै। परम्परानुसार एकरो अन्तिम प्रेषित के शुरुआत 7वीं सदी केरोअरबी प्रायद्वीप मँ होलो रहै।इस्लामी परम्परा के अनुसारअल्लाह के अन्तिमपैगम्बरमुहम्मद के द्वारा मनुष्यों तक पहुँचाई गई अवतरित किताबकुरान की शिक्षा पर आधारित है, तथा इसमेंहदीस,सीरत उन-नबी वशरीयत ग्रन्थ शामिल हैं। इस्लाम मेंसुन्नी,शिया,सूफ़ी व अहमदिया समुदाय प्रमुख हैं। इस्लाम की मज़हबी स्थलमस्जिद कहलाती हैं। अनुयाइयों की कुल आबादी के अनुसार इस्लाम विश्व का दूसरा सबसे बड़ा पन्थ है। विश्व में आज लगभग 1.9 अरब (या 190 करोड़) से 2.0 अरब (200 करोड़) मुसलमान हैं[१]। इनमें से लगभग 85% सुन्नी और लगभग 15% शिया हैं। सबसे अधिक मुसलमानदक्षिण पूर्व एशिया औरदक्षिण एशिया के देशों में रहते हैं।मध्य पूर्व,अफ़्रीका औरयूरोप में भी मुसलमानों के बहुत समुदाय रहते हैं। विश्व में लगभग 56 देश ऐसे हैं जहाँमुसलमान अधिक संख्या में हैं। विश्व में कई देश ऐसे भी है जहाँ की मुसलमान जनसंख्या के बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध नहीं है।
इस्लामों के लियेअल्लाह द्वारारसूलों को प्रदान की गयी सभी मज़हबी किताबें वैध हैं। इस्लामों के अनुसारक़ुरआन ईश्वर द्वारा मनुष्य को प्रदान की गयी अन्तिम मज़हबी किताब है।क़ुरआन में चार और किताबों का महत्व है :-
सहूफ़ ए इब्राहीमी जो किहजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को प्रदान की गयी थी।
इस्लाम धर्म मान्ने वाले एक ही ईश्वर को मानते हैं, जिसे वे [[अल्लाह]](फ़ारसी:खुदा) कहते हैं। एकेश्वरवाद को अरबी मेंतौहीद कहते हैं, जो शब्दवाहिद से आता है। जिसका अर्थ है एक। इस्लाम में अल्लाह को मानव की समझ से परे माना जाता है। मुसलमानों से अल्लाह की कल्पना करने के बजाय उसकी प्रार्थना और जय-जयकार करने को कहा गया है। मुसलमानों के अनुसार अल्लाह अद्वितीय है - उसके जैसा और कोई नहीं। इस्लाम में अल्लाह की एक विलक्षण अवधारणा पर बल दिया गया है और यह भी माना जाता कि उसका सम्पूर्ण विवरण करना मनुष्य से परे है। कहो:
अल्लाह एक और अनुपम, सनातन, सदा से सदा तक जीने वाला है,
न उसे किसी ने जना और न ही वो किसी का जनक है। एवं उस जैसा कोई और नहीं है।”
इस्लाम के अनुसार ईश्वर ने धरती पर मनुष्य के मार्गदर्शन के लिये समय समय पर और हर समाज (समुदाय) में किसी व्यक्ति को अपना दूत बनाया। संसार में लगभग 124,000 नबी (दूत) एक खुदा को पूजने का सन्देश देने के लिये भेजे गये थे। यह दूत भी मानवों में से होते थे और ईश्वर की ओर लोगों को बुलाते थे। ईश्वर इन दूतों से विभिन्न रूपों में समपर्क रखता था। इन दूतों को इस्लाम में नबी कहते हैं। जिन नबियों को ईश्वर ने आकाशवाणी के जरिये पुस्तकें प्रदान कीं उन्हें रसूल कहते हैं। इस्लाम के पहले नबीआदम अलैहिस्सलाम (Arabic: آدم,romanized:ʾĀdam) है। मुहम्मद सल्ललाहु अलैही व सल्लम भी इसी कड़ी का भाग थे और इस्लाम के अंतिम नबी थे । उनको जो आकाशवाणी पुस्तक प्रदान की गयी उसका नामकुरान है। कुरान में अल्लाह के 25 अन्य नबियों का वर्णन है। स्वयं कुरान के अनुसार ईश्वर ने इन नबियों के अलावा धरती पर और भी कई नबी भेजे हैं। जिनका वर्णन कुरान में नहीं है।
सभी मुसलमान ईश्वर द्वारा भेजे गये सभी नबियों की वैधता स्वीकार करते हैं और मुसलमान, मुहम्मद सल्ललाहु अलैही व सल्लम को ईशवर का अन्तिम नबी मानते हैं।अहमदिय्या समुदाय मुहम्मद सल्ललाहु अलैही व सल्लम को अन्तिम नबी नहीं मानता तथापि स्वयं को इस्लाम का अनुयायी कहता है और संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकारा भी जाता है। हालाँकि कई इस्लामी राष्ट्रों में उसे मुस्लिम मानना प्रतिबन्धित है। भारत केउच्चतम न्यायालय के अनुसार उनको भारत में मुसलमान माना जाता है।[२][३][४][५]
मुसलमान देवदूतों (अरबी मेंमलाइका/ उर्दु मे "फ़रिश्ते") के अस्तित्व को मानते हैं। उनके अनुसार देवदूत स्वयं कोई विवेक नहीं रखते और ईश्वर की आज्ञा का यथारूप पालन ही करते हैं। वह केवल रोशनी से बनीं हूई अमूर्त और निर्दोष आकृतियाँ हैं जो कि न पुरुष हैं न स्त्री, बल्कि मनुष्य से हर दृष्टि से अलग हैं। हालाँकि देवदूत अगणनीय हैं, पर कुछ देवदूत कुरान में प्रभाव रखते हैं:
जिब्राईल अलैहिस्सलाम जो नबीयों और रसूलों को ईश्वर का सन्देश ला कर देते थे।
इज़्राईल अलैहिस्सलाम जो ईश्वर के समादेश से मृत्यु का दूत जो मनुष्य की आत्मा ले जाता है।
मीकाईल अलैहिस्सलाम जो ईश्वर के समादेश पर मौसम बदलनेवाला देवदूत है।
इस्राफ़ील अलैहिस्सलाम जो ईश्वर के समादेश पर प्रलय के दिन के आरम्भ पर एक आवाज़ देगा।
किरामन कातिबीन (हिन्दी में "प्रतिष्ठित लेखक") जो मनुष्य के कर्मों को लिखते हैं। इस्लामिक मान्यता अनुसार प्रत्येक मनुष्य के साथ दो देवदूत लगे होते हैं जो उसके कर्मों को लिखते रहते हैं(कुरआन -82-9 व 10)
मुनकिर नकीर या नकीरैन - मनुष्य के मरणोपरान्त उसकी कब्र में आ कर उससे तीन प्रशन पूछने वाले।
मध्य एशिया के अन्य धर्मों (ईसाई और यहूदी) के समान इस्लाम में भी ब्रह्माण्ड का अन्त प्रलय के दिन द्वारा माना जाता है। इसके अनुसार ईश्वर एक दिन संसार को समाप्त करेगा जिसे इस्लाम में यौम अल-क़ियाम के नाम से जाना जाता है। यह दिन कब आयेगा इसकी सही जानकारी केवल ईश्वर को ही है। इस्लाम के अनुसार सभी मृत लोगों को उस दिन पुनर्जीवित किया जाएगा और अल्लाह के आदेशानुसार अपना जीवन व्यतीत करने वालों को स्वर्ग भेजा जाएगा और उसका आदेश न मनाने वालों को नर्क में जलाया जाएगा।
जन्नत (स्वर्ग) : इस्लाम के अनुसारअल्लाह /ईश्वर ने अपने बन्दों (अल्लाह को मानने वालो) को उनके अच्छे आमाल (कर्मो) का अपने फज़ल व कर्म से बदला और इनाम देने के लिए आखिरत (मौत के बाद वाला जीवन) में जो शानदार मकान तैयार कर रखा है उसका नामजन्नत है, और उसी को बह्शत भी कहते हैं इनके आलावा इसे स्वर्ग (ˈheavən) भी कहा जाता है। इस्लाम के अतिरिक्त अन्य धर्मो जैसेईसाई,यहूदी,हिन्दू ,तथाजैन धर्म में भी स्वर्ग को महत्व दिया है[६]। इस्लाम के अनुसार जो नमाज़ (प्रार्थना) करते हैं, दान करते हैं, नेक काम (पुण्य) करते है, कुरान पढ़ते हैं,अल्लाह/ईश्वर में विश्वास रखते हैं, फ़रिश्तो (स्वर्गदूतों), उनकी प्रकट किताबें, पैगम्बर और दूत, रोज़-ए-हश्र (न्याय का दिन) और उसके बाद का जीवन अर्थात आखेरत, और अपने जीवन मेंअल्लाह/ईश्वर के आदेश का पालन करें वही लोग जन्नत (स्वर्ग) में जा सकते है। इस्लाम में, जन्नत (स्वर्ग) की प्रचुरता और सुन्दरता इतनी अधिक है कि वे मानव के सांसारिक दिमाग से समझने की क्षमता से परे हैं।
जहन्नम (नर्क) : जन्नत के विपरीतअल्लाह /ईश्वर नेजन्नुम[Arabic جَهَنَّم (jahannam) नरक (narak) (Hinduism), दोज़ख़ (dozax) (Zoroastrianism and Islam)hell ] भी बनाई है। जहन्नुम एक ऐसी भयानक जगह है जिसमें जाने वाले इंसानों को दर्दनाक सजा दी जाएगी। इस्लाम के अतिरिक्त अन्य धर्मो के लोग जैसेईसाई,यहूदी,हिन्दू ,तथाजैन भी जहन्नुम (नर्क) पर विश्वास करते है[७]। धर्म और लोककथाओं में, जहन्नुम (नरक) जीवन के बाद का एक ऐसा स्थान है जिसमें बुरी आत्माओं को दंडात्मक पीड़ा के अधीन किया जाता है। इस्लाम के अनुसारअल्लाह /ईश्वर उन लोगों को जहन्नुम में डालेगा जो लोग दुनिया में उसके आदेशों का पालन नहीं करते है।
इस्लाम के दो प्रमुख वर्ग हैं,शिया औरसुन्नी। दोनों के अपने अपने इस्लामी नियम हैं लेकिन आधारभूत सिद्धान्त मिलते-जुलते हैं। बहुत से सुन्नी, शियाओं को पूर्णत: मुसलमान नहीं मानते। सुन्नी इस्लाम में हर मुसलमान के 5 आवश्यक कर्तव्य होते हैं जिन्हें इस्लाम के 5 स्तम्भ भी कहा जाता है। शिया इस्लाम में थोड़े अलग सिद्धांतों को स्तम्भ कहा जाता है।सुन्नी इस्लाम के 5 स्तंभ हैं:-
1. साक्षी होना (शहादत )- इस का शाब्दिक अर्थ है गवाही देना। इस्लाम में इसका अर्थ में इस अरबी घोषणा से हैःसाँचा:Quotationइस घोषणा से हर मुसलमान ईश्वर की एकेश्वरवादिता और मुहम्मद सलल्लाहु अलैहि वसल्लम के रसूल होने के अपने विश्वास की गवाही देता है। यह इस्लाम का सबसे प्रमुख सिद्धांत है। हर मुसलमान के लिये अनिवार्य है कि वह इसे स्वीकारे।
2. प्रार्थना (सलात)- इसे फ़ारसी मेंनमाज़ भी कहते हैं। यह एक प्रकार की प्रार्थना है जो अरबी भाषा में एक विशेष नियम से पढ़ी जाती है। इस्लाम के अनुसार नमाज़ ईश्वर के प्रति मनुष्य की कृतज्ञता दर्शाती है। यह काबा (मक्का) की ओर मुँह कर के पढ़ी जाती है। हर मुसलमान के लिये दिन में 5 बार नमाज़ पढ़ना अनिवार्य है। विवशता और बीमारी की हालत में (शरीयत में आसान नियम बताये गए हैं ) इसे नहीं टाला जा सकता है।
3. व्रत (रमज़ान) (सौम )- इस के अनुसारइस्लामी कैलेंडर के नवें महीने में सभी सक्षम मुसलमानों के लिये सूर्योदय (फजर) से सूर्यास्त (मग़रिब) तक व्रत रखना(भूखा प्यासा रहना)अनिवार्य है। इस व्रत कोरोज़ा भी कहते हैं।रोज़े में हर प्रकार का खाना-पीना वर्जित(मना) है। अन्य व्यर्थ कर्मों से भी अपनेआप को दूर रखा जाता है। यौन गतिविधियाँ भी वर्जित हैं। विवशता मेंरोज़ा रखना आवश्यक नहीं होता।रोज़ा रखने के कई उद्देश्य हैं जिन में से दो प्रमुख उद्देश्य यह हैं कि दुनिया के बाकी आकर्षणों से ध्यान हटा कर ईश्वर से निकटता अनुभव की जाए और दूसरा यह कि निर्धनों, भिखारियों और भूखों की समस्याओं और परेशानियों का ज्ञान हो।
4. दान (ज़कात )- यह एक वार्षिक दान है जो कि हर आर्थिक रूप से सक्षममुसलमान को निर्धन मुसलमानों में बांटना अनिवार्य है। अधिकतर मुसलमान अपनी वार्षिक आय का 2.5% दान में देते हैं। यह एक धार्मिक कर्तव्य इस लिये है क्योंकिइस्लाम के अनुसार मनुष्य की पूंजी वास्तव में ईश्वर की देन है। और दान देने से जान और माल कि सुरक्षा होती हे।
5. तीर्थ यात्रा (हज)- हज उस धार्मिक तीर्थ यात्रा का नाम है जो इस्लामी कैलेण्डर के 12वें महीने मेंमक्का में जाकर की जाती है। हर समर्पित मुसलमान (जो हज का खर्च उठा सकता हो और विवश न हो) के लिये जीवन में एक बार इसे करना अनिवार्य है।
मुसलमानों के लिये इस्लाम जीवन के हर पहलू पर अपना प्रभाव रखता है। इस्लामी सिद्धान्त मुसलमानों के घरेलू जीवन, उनके राजनैतिक या आर्थिक जीवन,मुसलमान राज्यों की विदेश निति इत्यादि पर प्रभाव डालते हैं।शरीयत उस समुच्चय नीति को कहते हैं जो इस्लामी कानूनी परम्पराओं और इस्लामी व्यक्तिगत और नैतिक आचरणों पर आधारित होती है। शरीयत की नीति को नींव बना कर न्यायशास्त्र के अध्य्यन कोफिक़ह कहते हैं। फिक़ह के मामले में इस्लामी विद्वानों की अलग अलग व्याख्याओं के कारण इस्लाम में न्यायशास्त्र कई भागों में बट गया और कई अलग अलग न्यायशास्त्र से सम्बन्धित विचारधारओं का जन्म हुआ।[८] इन्हें पन्थ कहते हैं।सुन्नी इस्लाम में प्रमुख पन्थ हैं-
हनफ़ी पन्थ- इसके अनुयायी दक्षिण एशिया और मध्य एशिया में हैं।
मालिकी पन्थ-इसके अनुयायी पश्चिम अफ्रीका और अरब के कुछ भागों में हैं।
शाफ्यी पन्थ-इसके अनुयायी पूर्वी अफ़्रीका, अरब के कुछ भागों और दक्षिण पूर्व एशिया में हैं।
हंबली पन्थ- इसके अनुयायी सऊदी अरब में हैं।
अधिकतर मुसलमानों का मानना है कि चारों पन्थ आधारभूत रूप से सही हैं और इनमें जो मतभेद हैं वहन्यायशास्त्र की बारीक व्याख्याओं को लेकर है।
मक्का के पास स्थित हिरा की गुफा जहां पैगम्बर मुहम्मद सल्ललाहु अलैही व सल्लम साहब को ईश्वर से पहला सन्देश मिला था।
पैगंबरमुहम्मद सल्ललाहु अलैही व सल्लम (५७०-६३२) कोमक्का की पहाड़ियों में कुरान का ज्ञान 610 के आसपास प्राप्त हुआ। जब उन्होंने उपदेश देना आरंभ किया तब मक्का के समृद्ध लोगों ने इसे अपनी सामाजिक व्यवस्था पर खतरा समझा और उनका विरोध किया। अंत में ६२२ में उन्हें अपने अनुयायीयों के साथ मक्का से [मदीना] के लिए कूच करना पड़ा। इस यात्रा को हिजरी(हिजरत)कहा जाता है और यहीं से इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत होती है। मदीना के लोगों की ज़िंदगी आपसी लड़ाईयों से परेशान सी थी और हजरत मुहम्मद सल्ललाहु अलैही व सल्लम साहब के संदेशों ने उन्हें वहाँ बहुत लोकप्रिय बना दिया। मक्का में स्थितकाबा को इस्लाम का पवित्र स्थल घोषित कर दिया गया। ६३२ में पैगम्बर मुहम्मद सल्ललाहु अलैही व सल्लम साहब का देहांत हो गया। पर उनकी मृत्यु तक इस्लाम के प्रभाव से अरब के सारे कबीले एक राजनीतिक और सामाजिक सभ्यता का हिस्सा बन गये थे। इस के बाद इस्लाम मेंखिलाफत का दौर शुरु हुआ।
वैज्ञानिक अध्ययन: इस्लामी इतिहास के शोधकर्ताओं ने समय के साथ इस्लाम के जन्मस्थान और किबला के परिवर्तन की जांच की है।पेट्रीसिया क्रोन,माइकल कुक और कई अन्य शोधकर्ताओं ने पाठ और पुरातात्विक अनुसंधान के आधार पर यह मान लिया है कि "मस्जिद अल-हरम" मक्का में नहीं बल्कि उत्तर-पश्चिमी अरब प्रायद्वीप में स्थित था।[९][१०][११][१२]डैन गिब्सन ने कहा कि पहले इस्लामिक मस्जिद और कब्रिस्तान झुकाव (क़िबला) नेपेट्रा की ओर इशारा किया, यहाँ मुहम्मद को अपने पहले रहस्योद्घाटन प्राप्त हुए, और यहाँ इस्लाम की स्थापना हुई।[१३]
मुहम्मद के ससुरअबु बक्र सिद्दीक़ मुसलमानों के पहले खलीफा (सरदार) ६३२ में बनाये गये। कई प्रमुख मुसलमानों ने मिल के उनका खलीफा होना स्वीकार किया। सुन्नी मुसलमानों (80-90%) के अनुसार अबु बक्र सिद्दीक की खिलाफ़त के सम्बंध में कोई विवाद नहीं हुआ अपितु सभी ने उन्हे खलिफ़ा स्वीकार कर लिया था, सुन्नी मान्यताओं के अनुसार हजरत मुहम्मद साहब ने स्वयं अपने स्वर्गवास से पूर्व ही अबु बक्र सिद्दीक को अपने स्थान पर इमामत करने सलात (फ़ारसी में "नमाज") पढ़ाने का कार्य भार देकर अबु बक्र सिद्दीक के खलिफ़ा होने का संकेत दे दिया था । सन् ६३२ में मुहम्म्द साहब ने अपने आखिरी हज में ख़ुम्म सरोवर के निकट अपने साथियों को संबोधित किया था। शिया विश्वास के अनुसार इस ख़िताब में उन्होंने अपने दामाद अली को अपना वारिस बनाया था। सुन्नी इस घटना को हजरत अली (अल्०) की प्रशंसा मात्र मानते है और विश्वास रखते हैं कि उन्होंने हज़रत अली को ख़लीफ़ा नियुक्त नहीं किया। इसी बात को लेकर दोनो पक्षों में मतभेद शुरु होता है।
हज के बाद मुहम्मद साहब (स्०) बीमार रहने लगे। उन्होंने सभी बड़े सहाबियों को बुला कर कहा कि मुझे कलम दावात दे दो कि में तुमको एसा नविश्ता लिख दूँ कि तुम भटको नहीं तो उमर ने कहा कि ये हिजयान कह रहे हे और नहीं देने दिया (देखे बुखारी, मुस्लिम)। शिया इतिहास के अनुसार जब पैग़म्बर साहब की मृत्यु का समाचार मिला तो भी ये वापस न आकर सकिफा में सभा करने लगे कि अब क्या करना चाहिये। जिस समय हज़रत मुहम्मद (स्०) की मृत्यु हुई, अली और उनके कुछ और मित्र मुहम्मद साहब (स्०) को दफ़नाने में लगे थे, अबु बक़र मदीना में जाकर ख़िलाफ़त के लिए विमर्श कर रहे थे। मदीना के कई लोग (मुख्यत: बनी ओमैया, बनी असद इत्यादि कबीले) अबु बकर को खलीफा बनाने पर सहमत हो गये। ध्यान रहे कि मोहम्मद साहेब एवम अली के कबीले वाले यानि बनी हाशिम अली को ही खलीफा बनाना चाहते थे। पर इस्लाम के अब तक के सबसे बड़े साम्राज्य (उस समय तक संपूर्ण अरबी प्रायद्वीप में फैला) के वारिस के लिए मुसलमानों में एकजुटता नहीं रही। कई लोगों के अनुसार अली, जो मुहम्मद साहब के चचेरे भाई थे और दामाद भी (क्योंकि उन्होंने मुहम्मद साहब की संतान फ़ातिमा से शादी की थी) ही मुहम्मद साहब के असली वारिस थे। परन्तु अबु बक़र पहले खलीफा बनाये गये और उनके मरने के बाद उमर को ख़लीफ़ा बनाया गया। इससे अली (अल्०) के समर्थक लोगों में और भी रोष फैला परन्तु अली मुसलमानों की भलाई के लिये चुप रहे। परन्तु शिया मुस्लिम (10-20%)के अनुसार मुहम्मद के चाचा जाद भाई,अली, जिन का मुसलमान बहुत आदर करते थे ने अबु बक्र को खलीफा मानने से इन्कार कर दिया। लेकिन यह विवाद इस्लाम की तबाही को रोक्ने के लिए वास्तव में हज़रत अली की सूझ बुझ के कारण टल गया अबु बक्र के कार्यकाल मेंपूर्वी रोमन साम्राज्य औरईरानी साम्राज्य से मुसलमान फौजों की लड़ाई हूई। यह युद्ध मुहम्मद के ज़माने से चली आ रही दुश्मनी का हिस्सा थे। अबु बक्र के बादउमर बिन खत्ताब को ६३४ में खलीफा बनाया गया। उनके कार्यकाल में इस्लामी साम्राज्य बहुत तेज़ी से फैला और समपूर्ण ईरानी साम्राज्य और दो तिहाई पूर्वी रोमन साम्राज्य पर मुसलमानों ने कबजा कर लिया। पूरे साम्राज्य को विभिन्न प्रदेशों में बाट दिया गया और और हर प्रदेश का एक राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया जो की खलीफा का अधीन होता था।
उमर बिन खत्ताब के बादउसमान बिन अफ्फान ६४४ में खलीफा बने। यह भी मुहम्मद के प्रमुख साथियों में से थे। उसमान बिन अफ्फान पर उनके विरोधियों ने ये आरोप लगाने शुरु किये कि वो पक्षपात से नियुक्तियाँ करते हैं और अली (मुहम्मद साहिब के चाचा जाद भाई) ही खलीफा होने के सही हकदार हैं। तभी मिस्र में विद्रोह की भावना जागने लगी और वहाँ से १००० लोगों का एक सशस्त्र समूह इस्लामी साम्राज्य की राजधानी मदीना आ गया। उस समय तक सभी खलीफा आम लोगों की तरह ही रहते थे। इस लिये यह समूह ६५६ में उसमान की हत्या करने में सफल हो गया। कुछ प्रमुख मुसलमानों ने अब अली को खलीफा स्वीकार कर लिया लेकिन कुछ प्रमुख मुसलमानों का दल अली के खिलाफ भी हो गया। इन मुसलमानों का मानना था की जबतक उसमान के हत्यारों को सज़ा नहीँ मिलती अली का खलीफा बनना सही नहीं है। यह इस्लाम का पहला गृहयुद्ध था। शुरु में इस दल के एक हिस्से की अगुआईआयशा, जो की मुहम्मद की पत्नी थी, कर रही थीं। अली और आश्या की सेनाओं के बीच में जंग हुई जिसे जंग-ए-जमल कहते हैं। इस जंग में अली की सेना विजय हुई। अब सीरिया के राज्यपालमुआविया ने विद्रोह का बिगुल बजाया। मुआविया उसमान के रिश्तेदार भी थे मुआविया की सेना और अली की सेना के बीच में जंग हूई पर कोई परिणाम नहीं निकला। अली ने साम्राज्य में फैली अशांति पर काबू पाने के लिये राजधानी मदीना से कूफा में (जो अभी ईराक़ में है) पहले ही बदल दी थी। मुआविया की सेनाऐं अब पूरे इस्लामी साम्राज्य में फैल गयीं और जल्द ही कूफा के प्रदेश के सिवाये सारे साम्राज्य पर मुआविया का कब्जा हो गया। तभी एक कट्टरपंथी ने ६६१ में अली की हत्या कर दी।
साँचा:Seealsoसाँचा:Seealsoअली के बाद हालांकि मुआविया खलीफा बन गये लेकिन मुसलमानों का एक वर्ग रह गया जिसका मानना था कि मुसलमानों का खलीफा मुहम्मद साहब के परिवार का ही हो सकता है। उनका मानना था कि यह खलीफा (जिसे वह ईमाम भी कहते थे) स्वयँ भगवान के द्वारा आध्यात्मिक मार्गदर्शन पाता है। इनके अनुसार अली पहले ईमाम थे। यह वर्गशिया वर्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ।[१४] बाकी मुसलमान, जो की यह नहीं मानते हैं कि मुहम्मद साहब का परिवारजन ही खलीफा हो सकता है,सुन्नी कहलाये।[१५] सुन्नी पहले चारों खलीफाओं को राशिदून खलीफा कहते हैं जिसका अर्थ है सही मार्ग पे चलने वाले खलीफा।
मुआविया के खलीफा बनने के बाद खिलाफत वंशानुगत हो गयी। इससेउमय्यद ख़िलाफ़त का आरंभ हुआ। शिया इतिहास कारों के अनुसार मुआविया क बेटे यज़ीद ने खिलाफत प्राप्त करते ही इस्लाम की नीतिओ के विरुद्ध कार्य करना शुरू कर दिया, उसके कृत्य से धार्मिक मुसलमान असहज स्थिति में आ गए, अब यज़ीद को आयश्यकता थी की अपनी गलत नीतिओ को ऐसे व्यक्ति से मान्यता दिला दे जिस पर सभी मुस्लमान भरोसा करते हो, इस काम के लिए यज़ीद ने हज़रत मुहम्मद के नवासे, हज़रत अली अलैहिस सलाम और हज़रत मुहम्मद की इकलौती पुत्री फातिमा के पुत्र हज़रत हुसैन से अपनी खिलाफत पर मंजूरी करनी चाही परन्तु हज़रत हुसैन ने उसके इस्लाम की नीतिओ के विरुद्ध कार्य करने के कारण अपनी मंजूरी देने से मना कर दिया, हज़रत हुसैन के मना करने पर यज़ीद की फौजों ने हज़रत हुसैन और उनके ७२ साथियो पर पानी बंद कर दिया और बड़ी ही बेदर्दी के साथ उनका क़त्ल करके उनके घर वालो को बंधक बना लिया,कई सुन्नी इतिहास कारों ने भी अपनी पुस्तकों में यज़ीद को हुसैन के क़त्ल का ज़िम्मेदार माना है परन्तु ये सभी शिया इतिहास कारों से प्रेरित थे या इनके ज्ञान का असल केन्द्र शियाओं की गढी़ गयी बनू उमय्या के विरुद्ध झूठी कहानियां है। सुन्नी मत के बड़े विद्वानों इमाम अहमद बिन हंब्ल, इमाम गंज़ाली वगैरह ने यज़ीद को क़त्ले हुसैन करने का ज़िम्मेदार नहीं माना है। इस जंग में हुसैन को शहादत प्राप्ति हो गयी। शिया लोग १०मुहर्रम के दिन इसी का शोक मनाते हैं।
इबन रशुद जिसने दर्शनशास्त्र में इबनरशुवाद को जन्म दिया।
उम्मयद वंश ७० साल तक सत्ता में रहा और इस दौरान उत्तरी अफ्रीका, दक्षिण यूरोप, सिन्ध और मध्य एशिया के कई हिस्सों पर उनका कब्ज़ा हो गया। उम्मयद वंश के बादअब्बासी वंश ७५० में सत्ता में आया। शिया और अजमी मुसलमानों ने (वह मुसलमान जो कि अरब नहीं थे) अब्बासियों को उम्मयद वंश के खिलाफ विद्रोह करने में बहुत सहायता की। उम्मयद वंश की एक शाखा दक्षिण स्पेन और कुछ और क्षेत्रों पर सिमट कर रह गयी। केवल एक इस्लामी साम्राज्य की धारणा अब समाप्त होने लगी।
अब्बासियों के राज में इस्लाम का स्वर्ण युग शुरु हुआ। अब्बासी खलीफा ज्ञान को बहुत महत्त्व देते थे। मुस्लिम दुनिया बहुत तेज़ी से विशव में ज्ञान केन्द्र बनने लगी। कई विद्वानों ने प्राचीन युनान, भारत, चीन और फ़ारसी सभय्ताओं की साहित्य, दर्शनशास्र, विज्ञान, गणित इत्यादी से संबंधित पुस्तकों का अध्ययन किया और उनका अरबी में अनुवाद किया। विशेषज्ञों का मानना है कि इस के कारण बहुत बड़ा ज्ञानकोश इतिहास के पन्नों में खोने से रह गया।[१६] मुस्लिम विद्वानों ने सिर्फ अनुवाद ही नहीं किया। उन्होंने इन सभी विषयों में अपनी छाप भी छोड़ी।
चिकित्सा विज्ञान में शरीर रचना और रोगों से संबंधित कई नई खोजें भारत हूईं जैसे कि खसरा और चेचक के बीच में जो फर्क है उसे समझा गया।इबने सीना (९८०-१०३७) ने चिकित्सा विज्ञान से संबंधित कई पुस्तकें लिखीं जो कि आगे जा कर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का आधार बनीं। इस लिये इबने सीना को आधुनिक चिकित्सा का पिता भी कहा जाता है।[१७][१८] इसी तरह सेअल हैथाम को प्रकाशिकी विज्ञान का पिता और अबु मूसा जबीर को रसायन शास्त्र का पिता भी कहा जाता है।[१९][२०]अल ख्वारिज़्मी की किताबकिताब-अल-जबर-वल-मुक़ाबला से ही बीजगणित को उसका अंग्रेजी नाम मिला। अल ख्वारिज़्मी को बीजगणित की पिता कहा जाता है।[२१]
इस्लामीदर्शनशास्त्र में प्राचीन युनानी सभय्ता के दर्शनशास्र को इस्लामी रंग से विकसित किया गया। इबने सीना ने नवप्लेटोवाद, अरस्तुवाद और इस्लामी धर्मशास्त्र को जोड़ कर सिद्धांतों की एक नई प्रणाली की रचना की। इससे दर्शनशास्र में एक नई लहर पैदा हूई जिसे इबनसीनावाद कहते हैं। इसी तरहइबन रशुद ने अरस्तू के सिद्धांतों को इस्लामी सिद्धांतों से जोड़ कर इबनरशुवाद को जन्म दिया। द्वंद्ववाद की मदद से इस्लामी धर्मशास्त्र का अध्ययन करने की कला को विकसित किया गया। इसे कलाम कहते हैं। मुहम्मद साहब के उद्धरण, गतिविधियां इत्यादि के मतलब खोजना और उनसे कानून बनाना स्वयँ एक विषय बन गया। सुन्नी इस्लाम में इससे विद्वानों के बीच मतभेद हुआ और सुन्नी इस्लाम कानूनी मामलों में ४ हिस्सों में बट गया।
राजनैतिक तौर पर अब्बासी साम्राज्य धीरे धीरे कमज़ोर पड़ता गया। अफ्रीका में कई मुस्लिम प्रदेशों ने ८५० तक अपने आप को लगभग स्वतंत्र कर लिया। ईरान में भी यही हाल हो गया। सिर्फ कहने को यह प्रदेश अब्बासियों के अधीन थे।महमूद ग़ज़नी (९७१-१०३०) ने अपने आप को तो सुल्तान भी घोषित कर दिया।सल्जूक तुरकों ने अब्बासियों की सेना शक्ति नष्ट करने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने मध्य एशिया और ईरान के कई प्रदेशों पर राज किया। हालांकि यह सभी राज्य आपस में युद्ध भी करते थे पर एक ही इस्लामी संस्कृति होने के कारण आम लोगों में बुनियादी संपर्क अभी भी नहीं टूटा था। इस का कृषिविज्ञान पर बहुत असर पड़ा। कई फसलों को नई जगह ले जाकर बोया गया। यहमुस्लिम कृषि क्रांति कहलाती है।
सलादीन की सेना का ११८७ के यरूशलेम के लिये हुए युद्ध का कलात्मक चित्रण।
फातिमिद वंश (९०९-११७१) जो कि शिया था ने उत्तरी अफ्रीका के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा कर के अपनी स्वतंत्र खिलाफत की स्थापना की। (हालांकि इस खिलाफत को अधिकतम मुसल्मान आज अवैध मानते हैं।) मिस्र में गुलाम सैनिकों से बनेममलूक वंश ने १२५० में सत्ता हासिल कर ली। मंगोलों ने जब १२५८ में अब्बासियों को बग़दाद में हरा दिया तब अब्बासी खलीफा एक नाम निहाद हस्ती की तरह मिस्र के ममलूक साम्राज्य की शरण में चले गये। एशिया मेंमंगोलों ने कई साम्राज्यों पर कब्ज़ा कर लिया और बोद्ध धर्म छोड़ कर इस्लाम कबूल कर लिया। मुस्लिम साम्राज्यों और इसाईयों के बीच में भी अब टकराव बढ़ने लगा।अय्यूबिद वंश केसलादीन ने ११८७ में येरुशलाईम को, जो पहलीसलेबी जंग (१०९६-१०९९) में इसाईयों के पास आ गया था, वापस जीत लिया। १३वीं और १४वीं सदी सेउस्मानी साम्राज्य(१२९९-१९२४) का असर बढ़ने लगा। उसने दक्षिणी और पूर्वी यूरोप के कई प्रदेशों को और उत्तरी अफ्रीका को अपना अधीन कर लिया। खिलाफत अब वैध रूप से उस्मानी वंश की होने लगी। ईरान में शियासफवी वंश(१५०१-१७२२) और भारत मेंदिल्ली सुल्तानों (१२०६-१५२७) और बाद मेंमुग़ल साम्राज्य(१५२६-१८५७) की हुकूमत हो गयी।
नवीं सदी से ही इस्लाम में अब एक धार्मिक रहस्यवाद की भावना का विकास होने लगा था जिसेसूफी मत कहते हैं।ग़ज़ाली (१०५८-११११) ने सूफी मत के पष में और दर्शनशास्त्र की निरर्थकता के बारे में कुछ ऐसे तर्क दिये थे कि दर्शनशास्त्र का ज़ोर कम होने लगा। सूफी काव्यात्मकता की प्रणाली का अब जन्म हुआ।रूमी (१२०७-१२७३) की मसनवी इस का प्रमुख उदाहरण है। सूफियों के कारण कई मुसलमान धर्म की ओर वापस आकर्षित होने लगे। अन्य धर्मों के कई लोगों ने भी इस्लाम कबूल कर लिया। भारत और इंडोनेशिया में सूफियों का बहुत प्रभाव हुआ।मोइनुद्दीन चिश्ती,बाबा फरीद,निज़ामुदीन जैसे भारतीय सूफी संत इसी कड़ी का हिस्सा थे।
१९२४ में तुर्की के पहलेप्रथम विश्वयुद्ध में हार के बाद उस्मानी साम्राज्य समाप्त हो गया और खिलाफत का अंत हो गया। मुसल्मानों के अन्य देशों में प्रवास के कारण युरोप और अमरीका में भी इस्लाम फैल गया है। अरब दैशों में तेल के उत्पादन के कारण उनकी अर्थव्यवस्था बहुत तेज़ी से सुधर गयी। १९वीं और २०वीं सदी में इस्लाम में कई पुनर्जागरण आंदोलन हुए। इन में सेसलफ़ी औरदेवबन्दी मुख्य हैं। एक पश्चिम विरोधी भावना का भी विकास हुआ जिससे कुछ मुसलमान कट्टरपंथ की तरफ आकर्षित होने लगे।
विश्व मँ आय लगभग 1.9 अरब (या फिर 190 करोड़) सँ 2.0 अरब (200 करोड़) मुसलमान छै। एकरा मँ सँ लगभग 85% सुन्नी और लगभग 15% शिया हैं। सुन्नी और शिया के अतिरिक्त इस्लाम में कुछ अन्य वर्ग भी हैं परन्तु इन का प्रभाव बहुत कम है।[२२] सबसे अधिक मुसलमानदक्षिण पूर्व एशिया औरदक्षिण एशिया के देशों में रहते हैं।मध्य पूर्व,अफ़्रीका औरयूरोप में भी मुसलमानों के बहुत समुदाय रहते हैं। विश्व में लगभग 56 देश ऐसे हैं जहांमुसलमान बहुमत में हैं।विश्व में कई देश ऐसे भी हैं जहां की मुसलमान जनसंख्या के बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध नहीं है।
मुसलमानों के उपासनास्थल को मस्जिद कहते हैं। मस्जिद इस्लाम में केवल ईश्वर की प्रार्थना का ही केंद्र नहीं होता है बल्कि यहाँ पर मुस्लिम समुदाय के लोग विचारों का आदान प्रदान और अध्ययन भी करते हैं। मस्जिदों में अक्सरइस्लामी वास्तुकला के कई अद्भुत उदाहरण देखने को मिलते हैं। विश्व की सबसे ए अक़सा भी इस्लाम में महत्वपूर्ण हैं।बड़ी मस्जिद मक्का की मस्जिद अल हरम है। मुसलमानों का पवित्र स्थलकाबा इसी मस्जिद में है। मदीना कीमस्जिद अल नबवी और जेरूसलम की मस्जिद
मुसलमानों का पारिवारिक और सामाजिक जीवन इस्लामी कानूनों और इस्लामी प्रथाओं से प्रभावित होता है। विवाह एक प्रकार का कानूनी और सामाजिक अनुबंध होता है जिसकी वैधता केवल पुरुष और स्त्री की मर्ज़ी और २ गवाहों से निर्धारित होती है (शिया वर्ग में केवल १ गवाह चाहिए होता है)। इस्लामी कानून स्त्रियों और पुरुषों को विरासत में आधा हिस्सा देता है। स्त्रियों का हिस्सा पुरुषों की तुलना में आधा होता है।
इस्लाम के दो महत्वपूर्णत्यौहारईद उल फितर औरईद-उल-अज़्हा हैं। रमज़ान का महीना (जो किइस्लामी कैलेण्डर का नवाँ महीना होता है) बहुत पवित्र समझा जाता है। अपनी इस्लामी पहचान दिखाने के लिये मुसलमान अपने बच्चों का नाम अक्सर अरबी भाषा से लेते हैं। इसी कारण वह दाढ़ी भी रखते हैं। इस्लाम में कपड़े पहनते समय लज्जा रखने पर बहुत ज़ोर दिया गया है। इसलिये अधिकतर स्त्रियाँ बुर्का पहनती हैं और कुछ स्त्रियाँ नकाब भी पहनती हैं।
भारत के अजमेर शहर में सूफी संत मोइनुदीन चिश्ती की दरगाह। यहां रोज़ हज़ारों लोग श्रद्धांजलि देने आते हैं ।
अन्य पन्थ से इस्लाम का सम्पर्क समय और परिस्थितियों से प्रभावित रहा है। यह सम्पर्क मुहम्मद सलल्लाहु अलैहि वसल्लम के समय से ही शुरु हो गया था। उस समय इस्लाम के अलावा अरब में 3 परम्पराओं के मानने वाले थे। एक तो अरब का पुराना पन्थ (जो अब लुप्त हो चुका है) था जिसकी वैधता इस्लाम ने नहीं स्वीकार की। इसका कारण था कि वह पन्थ ईश्वर की एकता को नहीं मानता था। जो कि इस्लाम के मूल सिद्धान्तों के विरुद्ध था।ईसाई पन्थ औरयहूदी पन्थ को इस्लाम ने वैध तो स्वीकार कर लिया पर इस्लाम के अनुसार इन मज़हब के अनुयायीयों ने इनमें बदलाव कर दिये थे। मुहम्म्द सलल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने मक्का से मदीना पहुँचने के बाद वहाँ के यहूदियों के साथ एक सन्धि करी जिसमें यहूदियों की धार्मिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता को स्वीकारा गया।[२५] अरब बहुदेववादियों के साथ भी एक सन्धि हूई जिसे हुदैबा की सुलह कहते हैं।
जिहाद :
मुहम्मद सलल्लाहु अलैहि वसल्लम के बाद से अक्सर राजनैतिक कारण अन्य धर्मों की ओर इस्लाम का व्यवहार निर्धारित करते आये हैं। जब राशिदून खलीफाओं ने अरब से बाहर कदम रखा तो उनका सामनापारसी पन्थ से हुआ। उसको भी वैध स्वीकार कर लिया गया।[२६] इन सभी धर्मों/पन्थ के अनुयायीयों को धिम्मी कहा गया। मुसलमान खलीफाओं को इन्हें एक शुल्क देना होता था जिसेजिज़्या याजजिया कहते हैं। इसके बदले राज्य उन्हें हानी न पहुँचाने और सुरक्षा देने का वादा करता था। उम्मयदों के कार्यकाल में इस्लाम कबूल करने वाले को अक्सर हतोत्साहित किया जाता था। इसका कारण था कि कई लोग केवल राजनैतिक और आर्थिक लाभों के लिये ही इस्लाम कबूल करने लगे थे। इससे जज़िया याजजिया कम होने लगा था।[२७]
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↑Boyer, Carl B. (1991), A History of Mathematics (Second Edition ed.), John Wiley & Sons, Inc.,ISBN 0-471-54397-7. "The Arabic Hegemony" p. 230.
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